Sunday, 11 October 2015

Dadri via khandwa

खंडवा छोड़े करीब 8 - 9  साल हो गये ,कुंडलेश्वर वार्ड शनि मंदिर के पीछे वाली गली मैं रहा करते थे ,पुश्तैनी घर था वही बचपन बीता ,गली मैं दूध वाले ,आरा मशीन ,आटा चकी ,किराने की दूकान , स्टील वर्क की दुकान ,
कुछ मंदिर,अखाड़ा आरएसएस शाखा  और कुछ नेताओ के घर ,हिन्दू बहुल इलाका ईका-दुक्का मुस्लिम परिवार 

मंदिर के दूसरे तरफ वाली गली मैं सुतार मोहल्ला था , सुतार मोहल्ला जहाँ फर्नीचर बनते थे , क्रिकेट के बेट के लिए पटिये की जुगाड़ मैं मोहल्ले के बचे उधर अक्सर जाया करते थे , वही कुछ दुकाने पीछे एक कसाई खाना था ,बकरे उलटे लटके रहते थे
 वही कुत्ते के पिल्लै भी मिल जाते थे बच्चे उनके गले मैं रस्सी बांधके साथ लिए घूमते थे ये अधमरे पीले थे कागज़ से लेकर गोबर जो भी पीले उसे खा लेते थे  
ये पीले कसाई खाने से पता नहीं क्या उठा उठा लाते थे , एक दिन किसी जानवर की चमड़ी लिए एक पिला घूम रहा था उसे बच्चो ने पकड़ना चाहा तो ट्रक इ नीचे घुस गया और निकला नहीं थोड़ी देर मैं बच्चे भी थक हार कर अपने आपने घर चले गये 

दूसरे दिन एक घटना हुई जिससे अभी तक भूल नहीं पाया मैं छटवी या सातवी मैं होंगा उस वक़्त  , st pius  स्कूल मैं पढता था ,स्कूल घर से दूर था to छोटी बहन और मैं साथ मैं ऑटो से जाते थे , सुबह 7 बजे स्कूल पहुँच जाते थे पर उस दिन  ठीक 10 बजे चाचा लेने आ गये 
बहन और मैं हम दोनों बढे खुश हुए की स्कूल की छूटी ,चाचा से कारण पुछा तो बोले
 शहर मैं कर्फ्यू लगा है ,तो कलेक्ट्रेट का आर्डर है की स्कूल बंद रहें
रस्ते मैं जब पुछा तो उन्होंने बताया की मंदिर के सामने कोई गाय का मांस फेक गया तो दंगा भड़कने से रोकने के लिए कर्फ्यू लगा है 
उस वक़्त से सब बातों का मतलब भी नै जनता था मैं पर चाचा हमे 
 किसी दूसरे सुरक्षित रस्ते से घर आ गये , घर पहुँचते ही हम दोनों ने बैग उतरा और फ्रीज़ से मिर्ची निकालकर सीधा छत पर भागे  जहाँ मिठू पाल रखा था उसके साथ दिन भर खेला करते ,छत से पूरा मोहल्ला दीखता था 
शनि मंदिर से लेकर स्टील शॉप तक वो स्टील शॉप मोहल्ले के ईका- दुक्का  मुस्लिम परिवारो मैं से किसी का था 
कमर मिठु भी दिन भर छत पर बैठ कर पूरे मोहल्ले पर नज़र रखता था पर आज मोहल्ला सुनसान था कर्फ्यू के कारण कोई घर से  निकल नहीं रहा था 
और जिस मंदिर पर ये हुआ वो हमारे मोहल्ले का शनि मंदिर ही था 

हम मिठू को मिर्ची खिला रहे थे बहन कह रही थी मेरी दी मिर्ची जल्दी खता है , तेरी मिर्ची धीरे खता है 
जभी शनि मंदिर से 40 - 50 लोगो का झुंड दूसरे तरफ भागता दिखा सब के हाथो मैं कुछ न कुछ सामान था
लठ ,रोड़ फावड़े और पता नहीं  क्या क्या सोर सुन कर मेरी बहन नीचे दादी के पास भाग गयी और मैं वही नीचे झुंककर बैठ गया 
वो लोग स्टील की दुकान को घेर लिए ,दरवाज़ा बंद था किसी ने लात मरी गेट पर तो किसी ने फावड़े से मारना शुरू किया थोड़े ही देर मैं 
दरवाज़ा टूट गया और वो सब लोग घर मैं घुस गये 
घर मैं कोई मिला नै शायद उन्हें रहने वाले लोग पीछे के रस्ते से बहार निकल चुके थे 
पर कुछ ही देर मैं कोई दुकान जहाँ पीछे घर भी था से लोग सामान लेकर बहार निकलने लगे कोई टीवी उठाकार कर बहार निकला तो
कोई बर्तन का स्टैंड निकलते निकलते किसी ने घर मैं आग लगा दी , घर जलने लगा आधे घंटे के बाद पुलिस और फायर ब्रिगेड पहुंची और उनकर देख कर वो दंगाई भागे 
मैं ये सब खड़ा ऊपर से देख रहा था  

घर जल रहा था मैं छत पर था मेरा मिठू चीला रहा था 
मोहल्ले के बच्चो से किसी ने पुछा नहीं वो जानते थे मांस मुस्लमान ने नहीं वो भूखे अधमरे कुत्ते के पीले से छूटा है 
आज भी सोचता हु उस बारें मैं तो बढ़ा उदास हो जाता हु 

सोचता हु क्या दादरी मैं भी ऐसा ही हुआ होगा 
इख़्लाक़ के घर मटन था गायें का मांस नहीं पर उसे मार दिया , उसका भी तो ऐसा कोई मोहल्ला होगा कुछ बच्चे खेलते होंगे ,
कोई मिठू उसने भी पाला होगा ,क्या खंडवा मैं जैसी घटना हुई और वो कुत्ते का पिला अगर मिल जाता तो क्या उसको भी आग लगा देते ?
क्या जब ये पता चल गया की इख़्लाक़ के घर गाये का मांस नहीं था तो क्या जिन्होंने उसे  मारा उन्हें  भी पकड़कर आग लगा देंगे ?
क्या भूख जानती है ये मटन है और ये गाय का मांस ?
क्या कोई बच्चो से पूछता है मारना चाहिये या नहीं ? 
क्या किसी को मिठू की चीख सुनाई नहीं आती ?
क्या छूट पुट सी बातो मैं युही जलती रहेगी ये दुनिया ?

Sunday, 20 September 2015

Dhundhte Dhundhte!

Jawani ke dosto mai bachpan ke dosto ko dhundhta
Premika mai kabhi ma ko dhundhta
Hosla badhate shikshak mai pita ko dhundhta
In sab mai kahi khudh ko dhundhta kahi khudhko bhulta!

Mumbai mai shuru ke din!

जीस लोकल मैं सफ़र करता हु , उनमे दिखने वाले कुछ चेहरे जाने पहचाने हो गए है ,१ सज्जन कुछ गणित मैं उलझे दीखते है मानो दुनिया आज ख़त्म होने को ,कोई १५ min की ही सही पर झपकी ले लेता है , कोई शहर मैं नया हो तो खिड़की से बाहर झाकने की ललक से पहेचाना जाता , और जब ट्रैन किस्सी झुगी के पास से गुज़रती है तो नाक बोहे सिकुड़ने के साथ उन बनाये ब्रहमो को खोकला पाता है
कुछ नवविवाहित भी दीखते है , चहेरे पर ख़ुशी और आँखों मैं कल के सपने , कुछ बच्चे भी होते है हाथो मैं किताबे लिए असल दोड़ मैं दोड़ने के लिए, कुछ दोड़ो मैं शामिल होना बाकि है , और हाँ उन चेहरे को घूरते घूरते अचानक पता चलता है की कुछ चेहरे आपको घुर रहे है और स्टेशन आ जाता है , हाँ कल ही पहली बारिश भी हुई मुंबई की पानी तो वही था पर concrete के शहर मैं मीट्टी की खुशबू नहीं आई "
कल रात करीब ३ बजे नींद खुली ,बहुत तेज़ बारिश हो रही थी, कमरे की खिड़की से बारिश की बूंदें के छींटे चेहरे पर आ रहे थे पर बारिश के शोर मैं कही किसी के रोने की आवाज़ भी थी शायद ,थकान ने इतना बदहवास कर दिया था की खिड़की बंद करके फिर सो गया, सुबह जब दूध वाले ने दरवाज़ा ठक ठकाया तो नींंद खुली ,दूध लिया और फिर वो आवाज़ ज़हन मैं आयी,खिड़की से बहार झाँका सामने वाली बिल्डिंग की नीचे एक अर्थी रखी थी और कुछ लोग खड़े थे कोई गुज़र गया था ,मैं उन लोगो मैं किसी को नहीं जनता था पर एक छोटी बच्ची जो वहा खड़े रो रही थी उसे देखा था मैंने कही
वो बच्ची वही थी जिसके कुछ दिन पहले उसके दादा के साथ society ground पर कुछ तस्वीरें खींची थी और कहा था सामने वाली बिल्डिंग मैं ही रहता हु कुछ दिनों मैं देता हु तस्वीरें ,जिनकी मृत्यु हुई वो उस बच्ची क़े दादा जी ही थे ,वो तस्वीरें अभी भी है मेरे कैमरे मैं ,
दिमाग से सोचता हु तो लगता है delete कर दू ,पर दिल लगाव रखता है उन तसवीरों से
क्या करू समझ नहीं आता ? ‪#‎Mumbai_Diaries‬

                                                       "Garib pardesi"
आप जब MBA school से branding की क्लास करके जब सीधे mumbai फैशन स्ट्रीट जात्ते है तो महंगे brands की नक़ल देखकर यकीं मानिये 
MBA की पढाई छोड़ने का मन करता है, इंदौर का "अपोलो" माल हो या भोपाल का "न्यू मार्केट" या दिल्ली का "पालिका बाज़ार" हमारे शहरो की प्रवासी आबादी खुश रहने के तरीके ढूंढ ही लेती है आखिर इनका भी नकली सामान बेचता असली मार्केट जो है 
मैं जहाँ से हु वहां brands का प्रचलन नहीं है, "शर्ट" "शर्ट" होता है, "पतलून" "पतलून" सालो साल एक ही दूकान से सम्मान आता है और खाता भी चलता है ,
महीने के पहले हफ्ते मैं सब उधारी चूका दी जाती है,इसी तरह से हज़ारो परिवार हमारे जैसे शहरो मैं जीवन चलाते आये है
ये अगर मैं क्लास मैं कहु तो तो मार्केटिंग के लिए "Insight" बन जाता है
पर अब जब जब अपने घर जाकर पुराने दोस्तों से मिलता हु तो शर्ट पर लगे ब्रांड पर लगे logo को देखकर उनके भी हाव भाव बदलते है
अजीब सा तनाव है माहोल मैं
आप ये नहीं पहनते तो शायद आप complete नहीं है
इस ब्रांड की घड़ी नहीं तो दिन दिन नहीं रात रात नहीं
यही सब सीख रहा हु मैं आज कल
दुखी करके चीज़े बेचना
सोचता हु काश फिर से "शर्ट" "शर्ट" हो जाये और "पतलून" "पतलून"
शहर शहर रहे और कसबे कसबे
न की कसबे फैशन स्ट्रीट पर मिलते सामान की तरह बड़े शहरो की नक़ल
खेर ये सब छोड़िये सुना है आज flipkart पर सेल लगी है अच्छी deals है! ‪#‎Smalltown‬‪ 
                              "Baavre"


Often people who are bibliophiles recommend books 
That’s a amazing book you should read, that book would change your perception about life and things like that
Seeing a strange person on a railway platform reading a book which you love is like book recommending a person go talk to him
There is something common between you, your frequency matches this is what a book says to you
I read somewhere about a social experiment
In a room if there are 2 person one male and one female
The third person entering the room will talk to the person of the same gender he or she belongs to
Likewise if in a room there is a Muslim and a Hindu then the person entering will talk to the person of the same faith of his or her
Yes
“Birds of the same feathers
Flock together “  
I live in Sion Koliwada (Mumbai) on the pavement in front of my building a mad man lives
I don’t know his story every morning I see him reading newspaper or solving word puzzle  
Last night I saw him reading my favourite “Maximum city Bombay lost and found”
Is that book seriously recommending him ,should I go and talk to him but he is a mad man
I don’t know is it sanity or insanity common between us
 should I ignore him
Wait a minute is there a mad man in me to?

  


Saturday, 19 September 2015

Ganne ke khet

जो लोग रात को जागते है उनको
दुनिया बढे अलग तरीके से देखती है
समय की समझ नहीं  बचती इन लोगो मैं
सुबह हो गयी है उठा जाना चाइये ?
या रात हो गयी सो जाना चाइये ?
ये समय  हो गया  है तो  खाना खा लेना चाइये ?
हर बात मैं घडी दिखाई जाती है
यही नहीं graduate हो गये हो नौकरी क्यों नहीं करते ?
नौकरी हो गयी शादी क्यों नहीं  करते ?
शादी हो गयी अब बच्चे क्यों नहीं  करते ?
बच्चे हो गये घर क्यों नहीं  खरीदते ?

पर अगर

सवालो और जवाबो के इस मेले पानी मैं
सवालो  की धूल को  सतह पर बैठने दे  तो
सवाल "घडी" की सुइयों पर लटकते मिलते है
"समय हो गया है काम हो जाना चाइये"
कैसे पता चलता है समय हो गया है ?
कौन बताता है की ये समय ये होना है ?
सुइये तो गोल सांचे मैं घूम रही है हम क्यों पर सीधे दोड़ रहे है?
 
जवाब मुझे मिलता नहीं

पता नहीं  बर बस "जब वी मेट" फिल्म का अंशुमान याद आ जाता है
जो गन्ने के खेत नहीं  देखना चाहता था
उसका कहना था
ये कल के लोंडे मुझे गन्ने के खेत दिखाना चाहते है !
क्या खास है गन्ने के खेतो मैं ?
क्यों देखूं मैं गन्ने के खेत ?
नहीं देखने मुझे गन्ने के खेत ?

इसका कोई वाजिब जवाब देदे तो
मेरी भी कोई खास इछा नहीं है गन्ने के खेत देखने की:)